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गीता प्रेस, गोरखपुर >> आशा की नयी किरणें

आशा की नयी किरणें

रामचरण महेन्द्र

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :214
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 1019
आईएसबीएन :81-293-0208-x

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प्रस्तुत है आशा की नयी किरणें...

आपकी संचित शक्तियां


जिन तोप-बंदूकोंको जलयानके लिये रखा जाता है, चुनावसे पूर्व उसकी परीक्षा होती है। उनमें उनकी शक्तिसे कुछ अधिक बारूद भरकर चलाया जाता है। यदि उस बढ़ी हुई शक्तिके भारको वे वहन कर लेती है, तो उन्हें युद्धके लिये उपयुक्त समझकर चुन लिया जाता हैं। अनेक तोप-बंदूकें इस परीक्षामें ही विनष्ट होकर खण्ड-खण्ड हो जाती है। इनमेंसे अनेक ऐसी होती है, जो साधारण स्थितियों, तथा दैनिक कार्योंमें मामूली तौरपर काम चला सकती है। पर अधिक काम या बोझ पड़नेपर टूट सकती है।

पुलोंका भी यही हाल है। काममें लानेसे पहले उनपर भारी इंजिनको चलाकर देखा जाता है कि कहीं अधिक भारसे टूट तो न जायँगे? प्रत्येक इंजिन या लोकोमाटिवमें कुछ हार्स पावरकी शक्ति सुरक्षित रखी जाती है। यदि आप २० हार्स पावरका इंजिन चाहते है, तो कम्पनी आपको ३० हार्स पावरका इंजिन भेजेगी। यह दस हार्स पावरकी अधिक शक्ति काममें नहीं आयेगी, पर कभी अड़चन या जरूरी मौकेके लिये उसे संचित रखना अति आवश्यक है। मौके-बे-मौके कभी भी उसकी जरूरत पड़ सकती है। सम्भावित आवश्यकताओंके लिये इसे संचित रखना जरूरी है।

ऐसा ही हाल मनुष्यकी शक्तियोंका होना चाहिये। अनन्त मानसिक शक्तिसे परिपूर्ण, सुसंचालित विवेक, संतुलित चरित्रवाला व्यक्ति आपत्तिकाल या जरूरत के

समय किंकर्तव्यविमूढ नहीं होता। अधिक काममें भी वह अपनी शक्तियोंका पूर्ण परिचय देता है, जबकि ऊपरी दृष्टिसे मोटे-ताजे व्यक्ति पीछे रह जाते है। जरा, कार्याधिक्य हुआ कि उनके प्राणोंपर आ बनती है।

बड़े व्यापारी उन व्यक्तियोंको पसंद करते है जो आपत्तिकालमें, जब मजदूरी भी कम हो, उसी उत्साहसे कार्यमें संलग्न रहते हैं, जितने वे आरामके समृद्धिशाली दिनोंमें थे। प्रारम्भिक कालमें जब व्यापार प्रारम्भ ही किया जाता है, उसे आगे विकसित करनेके लिये बड़े परिश्रमी, संयमी और शक्तिशाली व्यक्तियोंकी आवश्यकता पड़ती है। व्यापारमें न मनुष्यका पुस्तकीय ज्ञान, शक्ति या अनुभव कार्य करता है, प्रत्युत उसे समुन्नत बनानेवाला वह भाव है जो उसके मनमें, पुनः-पुनः यह भावना उत्पन्न करता है कि खतरेके समय भी वह अपने कार्यको सँभाल सकेगा। बची हुई शक्ति, संचित सम्पत्ति, एकत्रित ताकतें वे चीजें है जो मनुष्यको सफल व्यापारी बनाती हैं।

आपमें संचित शक्तियाँ कितनी है? जरूरतके समयके लिये आपने कितनी शक्तियाँ इकट्ठी कर रखी हैं? जो व्यक्ति जरूरतके समयके लिये अपनी शक्तियां एकत्रित नहीं रखता, वह मूर्ख है।

वे कौन-सी शक्तियाँ है, जिनके संचयकी आवश्यकता है। इसके उत्तरमें कहा जायगा कि सर्वप्रथम हमें अपनी प्राणशक्तिका अधिकाधिक संचय करना चाहिये। प्राणशक्तिके द्वारा ही हमारा इस जगत्से नाता है। जबतक प्राण तबतक संसार। प्राणोंका जो कोष आपको मिलता है, उसकी रक्षाके लिसे सदा-सर्वदा जागरूक रहनेकी आवश्यकता है।

प्राणका अर्थ मनुष्यकी शारीरिक शक्ति, सामर्थ्य और क्रियाशक्तिका विकास है। मनुष्यके शरीरमें दो प्रधान शक्तियाँ है-

(१) शरीरका विकास-पोषण एवं क्रियान्वित करनेकी शक्तियाँ
(२) रोगोंसे युद्धकर शरीरको स्वस्थ रखनेकी शक्ति।

प्रथम शक्तिके द्वारा हमारे हाथ-पाँव आदि शरीरके सब अवयव अपनी पुष्टि प्राप्त करते है, रक्तके द्वारा उनमें बल-ओज-वीर्यका संचार होता है। दूसरी शक्तिसे गंदगी तथा सब प्रकारके विजातीय विषोंका निष्कासन होता है। यह शक्ति हमें-जीवनको स्थिर रखनेके हेतु संघर्ष करना सिखाती है। शरीरकी रक्षाके लिये हमें इन दोनों ही शक्तियोंका एक बृहत् संचित कोष अपने पास रखना चाहिये। 

स्वस्थ जीवनीशक्तिवाले व्यक्तिके लक्षण इस प्रकार हैं-उसकी त्वचा वीर्ययुक्त लाल स्निग्ध होती है, पाचन-शक्ति सुव्यवस्थित होती है, मलद्वार मल-निष्कासनकी क्रिया सहज, बड़े उत्तम तरीकेसे करता है, नेत्र निर्मल और तेजस्वी रहते है, घाव लगनेपर आसानीसे ठीक हो जाता है, निद्रा स्वस्थ और गहरी आती है। हमें चाहिये कि ऋषियोंद्वारा प्रतिपादित सूर्यस्रान, प्राणायाम, उपयुक्त पौष्टिक भोजनद्वारा प्राणशक्तिका संचय करते रहें, वीर्यनाश न करें। व्यर्थकी छोटी-बड़ी चिन्ताओंमें लगे रहनेसे असंतोष, अतृप्त, विषादमय मनःस्थिति रखनेसे प्राणशक्तिका अपव्यय होता है। मनमें आह्लाद तथा आशाका सुखद वातावरण बनाये रखें। जैसे शरीरको पुष्ट करनेसे प्राणशक्ति संचित होती है, वैसे ही निर्भयता, ईमानदारी, प्रसन्नता और आत्मनिर्भरता-जैसे सद्गुणोंको चरित्रमें उतारनेसे प्राणशक्तिको स्थिर रखा जा सकता है। प्राणशक्तिका निरन्तर संग्रह करना चाहिये। यह वह सम्पदा है, जिसकी रक्षासे संसारका सुख हमारे लिये सम्भव है।

अर्थशक्ति अर्थात् संचित पूँजीकी शक्ति महान् है। हम ऐसे सामाजिक युगमें निवास कर रहे है, जिसमें हमारे सामाजिक सम्बन्ध अर्थसे संचालित होते है। जिसके पास जितनी संचित पूँजी है, समाजमें उसको उतनी ही मान-प्रतिष्ठाका अधिकार है। संचित पूँजीका तात्पर्य है संचित श्रम। जो व्यक्ति श्रमको संचितकर पूँजीकी शक्लमें रखता है, उसके मनमें एक आन्तरिक शान्ति विद्यमान रहती है, जो समय-समयपर उसके काम आती रहती है। हमारे समाजका विधान कुछ ऐसा है कि जबतक जीवन है, तबतक रुपये-पैसेकी आवश्यकता रहती है। यौवनकालकी संचित पूँजी वृद्धावस्थाकी एक शक्ति बन जाती है!

जो व्यक्ति अर्थ-शक्तिको संचित रखता है वह अपने साथ एक ऐसा सेवक रखता है, जो हर समय, हर अवस्था, हर स्थितिमें सेवा-सहायताको प्रस्तुत रहता है। अर्थ एक जीती-जागती शक्ति है। इस सम्बन्धमें बड़ा जागरूक रहनेकी आवश्यकता है। लक्ष्मीको चंचला कहा गया है। यह एक व्यक्तिके पास स्थिर नहीं रहती। तनिक-सी असावधानीसे वर्षोंकी संचित पूँजी अनायास ही हाथसे निकल जाती है। इस शक्तिको संचित करनेके लिये अधिक जागरूक रहिये।

ईश्वरकी अनुकम्पा, सहायता, प्रेरणामें विश्वास ऐसी शक्ति है, जो मनुष्यको बाल्यकालसे लेकर मृत्युपर्यन्त सहायता देती है। आस्तिकवाद हमारी सम्पदा है!

ईश्वरीय सत्तामें निष्ठा हमें सदा-सर्वदा समुन्नत करती और संकटके समय आन्तरिक शान्ति प्रदान करती है। ईश्वर हमारे जीवन तथा कर्मका आदिस्रोत है, हमारे हृदय-मन्दिरमें प्रकाश करनेवाला तेजःपुञ्ज है, हमारे जीवनमें प्राण और श्वास है। ईश्वरीय आशाविहीन व्यक्ति उस सूखी पत्तीकी तरह है जो विपरीत हवामें यत्र-तत्र मारी-मारी फिरती है। निराशा और वेदनाएँ उसे एक ओर खींचती है, तो व्यर्थके प्रलोभन, लोभ, अतृप्ति दूसरी विपरीत दिशामें आकर्षित करती हैं।

मैं ईश्वरके तेजकी एक रश्मि हूँ। ईश्वरीय सत्तामें मुझे अन्ततः विलीन हो जाना है। मैं जहाँसे जन्मा हूँ, वहीं पहुँच जाऊँगा। मेरी आत्मा सत्-चित् आनन्दस्वरूप परमेश्वरका अंश है। मुझमें उस प्रभुके गुण ही प्रकाशित हो सकते है। अनीति, अन्याय, अनर्थसे मेरा कोई सम्बन्ध नहीं-ऐसी आस्तिक भावना मनःप्राणमें संचित रखनेवाला व्यक्ति सदा-सर्वदा कमलके समान उत्फुल्ल रहता है।

संकटमें, विपदामें, निराशाके अवसरोंपर दैवी सत्ताका तादात्म्य आपको वह अन्तर्बल देगा, जिसके द्वारा आप आन्तरिक शक्ति पाते रहेंगे। ईश्वर शक्तिके आदिस्रोत हैं। उनसे हमारी आत्माको सहन-शक्ति प्राप्त होती है। इस अन्तर्बलसे व्यक्ति सब परिस्थितियोंमें बाह्य जगत्के संकटोंसे सुरक्षित रहता है। ईश्वरकी सद्योजनाओंमें अपने विश्वासको निरन्तर बढ़ाते चलिये। पूजन, गायत्री-जप, भजन, संध्या तथा नाना साधनाएँ आपको सदा दैवी-तत्त्वसे संयुक्त रखती हैं।

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    अनुक्रम

  1. अपने-आपको हीन समझना एक भयंकर भूल
  2. दुर्बलता एक पाप है
  3. आप और आपका संसार
  4. अपने वास्तविक स्वरूपको समझिये
  5. तुम अकेले हो, पर शक्तिहीन नहीं!
  6. कथनी और करनी?
  7. शक्तिका हास क्यों होता है?
  8. उन्नतिमें बाधक कौन?
  9. अभावोंकी अद्भुत प्रतिक्रिया
  10. इसका क्या कारण है?
  11. अभावोंको चुनौती दीजिये
  12. आपके अभाव और अधूरापन
  13. आपकी संचित शक्तियां
  14. शक्तियोंका दुरुपयोग मत कीजिये
  15. महानताके बीज
  16. पुरुषार्थ कीजिये !
  17. आलस्य न करना ही अमृत पद है
  18. विषम परिस्थितियोंमें भी आगे बढ़िये
  19. प्रतिकूलतासे घबराइये नहीं !
  20. दूसरों का सहारा एक मृगतृष्णा
  21. क्या आत्मबलकी वृद्धि सम्मव है?
  22. मनकी दुर्बलता-कारण और निवारण
  23. गुप्त शक्तियोंको विकसित करनेके साधन
  24. हमें क्या इष्ट है ?
  25. बुद्धिका यथार्थ स्वरूप
  26. चित्तकी शाखा-प्रशाखाएँ
  27. पतञ्जलिके अनुसार चित्तवृत्तियाँ
  28. स्वाध्यायमें सहायक हमारी ग्राहक-शक्ति
  29. आपकी अद्भुत स्मरणशक्ति
  30. लक्ष्मीजी आती हैं
  31. लक्ष्मीजी कहां रहती हैं
  32. इन्द्रकृतं श्रीमहालक्ष्मष्टकं स्तोत्रम्
  33. लक्ष्मीजी कहां नहीं रहतीं
  34. लक्ष्मी के दुरुपयोग में दोष
  35. समृद्धि के पथपर
  36. आर्थिक सफलता के मानसिक संकेत
  37. 'किंतु' और 'परंतु'
  38. हिचकिचाहट
  39. निर्णय-शक्तिकी वृद्धिके उपाय
  40. आपके वशकी बात
  41. जीवन-पराग
  42. मध्य मार्ग ही श्रेष्ठतम
  43. सौन्दर्यकी शक्ति प्राप्त करें
  44. जीवनमें सौन्दर्यको प्रविष्ट कीजिये
  45. सफाई, सुव्यवस्था और सौन्दर्य
  46. आत्मग्लानि और उसे दूर करनेके उपाय
  47. जीवनकी कला
  48. जीवनमें रस लें
  49. बन्धनोंसे मुक्त समझें
  50. आवश्यक-अनावश्यकका भेद करना सीखें
  51. समृद्धि अथवा निर्धनताका मूल केन्द्र-हमारी आदतें!
  52. स्वभाव कैसे बदले?
  53. शक्तियोंको खोलनेका मार्ग
  54. बहम, शंका, संदेह
  55. संशय करनेवालेको सुख प्राप्त नहीं हो सकता
  56. मानव-जीवन कर्मक्षेत्र ही है
  57. सक्रिय जीवन व्यतीत कीजिये
  58. अक्षय यौवनका आनन्द लीजिये
  59. चलते रहो !
  60. व्यस्त रहा कीजिये
  61. छोटी-छोटी बातोंके लिये चिन्तित न रहें
  62. कल्पित भय व्यर्थ हैं
  63. अनिवारणीयसे संतुष्ट रहनेका प्रयत्न कीजिये
  64. मानसिक संतुलन धारण कीजिये
  65. दुर्भावना तथा सद्धावना
  66. मानसिक द्वन्द्वोंसे मुक्त रहिये
  67. प्रतिस्पर्धाकी भावनासे हानि
  68. जीवन की भूलें
  69. अपने-आपका स्वामी बनकर रहिये !
  70. ईश्वरीय शक्तिकी जड़ आपके अंदर है
  71. शक्तियोंका निरन्तर उपयोग कीजिये
  72. ग्रहण-शक्ति बढ़ाते चलिये
  73. शक्ति, सामर्थ्य और सफलता
  74. अमूल्य वचन

विनामूल्य पूर्वावलोकन

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